Monday, February 9, 2009

continued...

जहाँ देखो - छतों पर, पानी की टंकियों पर, फ्लाई ओवर की मुंडेर पर, फूटपाथ पर फैले बाजरे के सामने - हर जगह झुंड में।
उनका मन क्यों नहीं करता की कोई उन्हें देख कर कहे, "अरे! यह तो वही कबूतर है न जो अपने झुंड के साथ नहीं, अपनी उड़ान अकेले भरता है, चील की तरह!"
उनका मन प्रसिद्दि के मंच पर खड़े हो कर मुस्कुराने को क्यों नहीं करता?

अब छत पर न जाने कितने कबूतर आ बैठे हैं - अँधेरा हो गया है न, शायद अकेले डर लगता है उन्हें!

"आ चल के तुझे..." - किशोर कुमार भी तो प्रसिद्ध हैं - उन्हें उसी मंच पर खड़े मुस्कुराते देख रही हूँ।
पर मुझे वो गगन नहीं चाहिए, जहाँ ग़म भी न हो आंसू भी न हो..."
मेरे लिए तो बस -

"सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."

1 comment:

Swati Bhasin said...

transalting this for humans ... everyone is an eagle today busy preying and they have forgotten how peaceful was it to be a pigeon ... very metaphoric and extremely thougtful ..