"सपनों से भरे नैना, न नींद है न चैना..."
बार बार यही गाना गुनगुना रहा था मन।
खिड़की से बाहर नज़र गई, देखा की छत पर चार कबूतर बैठे हैं - एक कतार में। कुछ नई बात नही थी।
वहां से नज़र घूमती हुई दीवार पर बनी अलमारी पर गई। उस पर सफ़ेद पेंट का उल्टा प्रश्नचिंह सा बना हुआ था। फिर वही - "सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."
उस प्रश्नचिंह में ख़ुद को प्रसिद्दि के मंच पर खड़े मुस्कुराते देखती हूँ। सपनों से भरे नैना तो हैं, पर साथ में नींद और चैन भी है। फिलहाल तो है ही। आगे का पता नही।
नज़र फिर खिड़की से बाहर छत पर। चार की जगह छः कबूतर - एक कतार में।
"आ चलके तुझे मैं ले के चलूँ, इक ऐसे गगन के तले जहाँ ग़म भी न हों आंसू भी न हों, बस प्यार ही प्यार पले..."
मन दूसरा गीत गाने लगा... मुझे भी ऐसे गगन के तले जाना है। क्या वे कबूतर उसी गगन से आए हैं? उन्हें भी तो कोई ग़म नहीं है। न कोई आंसू।
पर ये कबूतर भी कितने आकांकशाहीन होते हैं।
भेड़चालमें मस्त। जहाँ दो कबूतर बैठे दिखे, बाकी के आठ - दस भी बारी बारी वहीँ जमघट लगा लेते हैं।
क्यों?
इन्हे क्या ख़ुद पर भरोसा नहीं है?
क्या ये अकेले उड़ान भरने से डरते हैं?
PVR Priya के सामने एक फव्वारा है। पूरे साल सूखा-खाली पड़ा रहता है। पर फव्वारा है।
कई बार देखा है वहां। सैंकडों कबूतर एक साथ उड़ते हैं - जहाँ भी जाते हैं - साथ जाते हैं।
पर चील तो अकेले ही उड़ती हैं न!
वहां, उस वक्त साथ उड़ते कबूतरों को देख कर पता नहीं क्यों, खुशनुमा सा महसूस होता है मन में।
पर अभी छत पर बैठे कबूतरों को देख कर तो कोफ्त की होती है।
नालायक कहीं के!
वो क्यों नहीं अकेले उड़ान भर सकते?
क्यों हमेशा झुंड में रहते हैं, गुमनाम बने हुए?
to be continued...
Monday, February 9, 2009
continued...
जहाँ देखो - छतों पर, पानी की टंकियों पर, फ्लाई ओवर की मुंडेर पर, फूटपाथ पर फैले बाजरे के सामने - हर जगह झुंड में।
उनका मन क्यों नहीं करता की कोई उन्हें देख कर कहे, "अरे! यह तो वही कबूतर है न जो अपने झुंड के साथ नहीं, अपनी उड़ान अकेले भरता है, चील की तरह!"
उनका मन प्रसिद्दि के मंच पर खड़े हो कर मुस्कुराने को क्यों नहीं करता?
अब छत पर न जाने कितने कबूतर आ बैठे हैं - अँधेरा हो गया है न, शायद अकेले डर लगता है उन्हें!
"आ चल के तुझे..." - किशोर कुमार भी तो प्रसिद्ध हैं - उन्हें उसी मंच पर खड़े मुस्कुराते देख रही हूँ।
पर मुझे वो गगन नहीं चाहिए, जहाँ ग़म भी न हो आंसू भी न हो..."
मेरे लिए तो बस -
"सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."
जहाँ देखो - छतों पर, पानी की टंकियों पर, फ्लाई ओवर की मुंडेर पर, फूटपाथ पर फैले बाजरे के सामने - हर जगह झुंड में।
उनका मन क्यों नहीं करता की कोई उन्हें देख कर कहे, "अरे! यह तो वही कबूतर है न जो अपने झुंड के साथ नहीं, अपनी उड़ान अकेले भरता है, चील की तरह!"
उनका मन प्रसिद्दि के मंच पर खड़े हो कर मुस्कुराने को क्यों नहीं करता?
अब छत पर न जाने कितने कबूतर आ बैठे हैं - अँधेरा हो गया है न, शायद अकेले डर लगता है उन्हें!
"आ चल के तुझे..." - किशोर कुमार भी तो प्रसिद्ध हैं - उन्हें उसी मंच पर खड़े मुस्कुराते देख रही हूँ।
पर मुझे वो गगन नहीं चाहिए, जहाँ ग़म भी न हो आंसू भी न हो..."
मेरे लिए तो बस -
"सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."
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