Friday, February 18, 2011

शून्य

मैं शून्य में ताकती हूँ।
आपने कभी ऐसा किया है?
ज़रूर किया होगा।
शून्य तो हर किसी का हिस्सा है।
हर बात का किस्सा है।
बैठे बैठे, कुछ सोचते हुए न जाने कब,
हम सोच की चारदीवारी से निकल के
शून्य के आग़ोश में पहुँच जाते हैं।
जहां कोई हमारे पीछे नहीं आ सकता,
कोई ख़याल सांकल नहीं खोल सकता,
कोई आवाज़ कानों तक नहीं पहुँच सकती।
जहां मन अधीर नहीं होता,
जहां चिंताओं का नीड़ नहीं होता।
जहां भावनाएं मायने नहीं रखती,
जहां भाव पहरेदारी में नहीं है।
शून्य - दूर तक पसरा हुआ मौन।
ऐसा अन्धकार जो भयावह नहीं है।
मन को सुकून देनेवाला तमस।
हर परिचित संज्ञा से दूर ले जाने वाला पथ।
महसूस किया है न?
कभी न कभी?
शायद आप उसे ध्यान कहते हैं।
पर,
मैं शून्य कहती हूँ।
मैं शून्य में ताकती हूँ।

Thursday, April 29, 2010

कुछ ऐसा कह दो..

आज..

कुछ ऐसा कह दो कि आँख भर आये..

आज..

कुछ ऐसा कह दो कि धड़कन थम जाये..

बेमतलब की वो हंसी फिर से हंस दो..

ऐसे..

कि दिल बेधड़क झूम जाये..

रुक जाये ये पल कुछ पल यहीं..

झुक जाये वो दरख़्त आम का यूँ कहीं..

उस बगिया में कोई कच्ची अमिया चुराए..

ऐसे..

कि बचपन मेरा लौट आये..

बहुत दिन हुए खुद से बातें किये..

गीत यूँ ही कोई गुनगुनाते हुए..

बेफिक्री से हाथों में छल्ला घुमाये

ऐसे..

कि लड़कपन मेरा मुस्कुराये..

चुकाई है कीमत हर सपने की दिल ने..

ख़ुशी भी मिली, खिज़ा भी है दिल में..

ना समझो कि ये मन चुगली लगाये..

एवे..

चलो आज बारिश का जश्न मनाएं..

आज..

कुछ ऐसा कह दो कि आँख भर आये..

Wednesday, September 30, 2009


गीता दत्त

Saturday, September 19, 2009

गीता दत्त


यह नाम सुनते ही मन में एक तस्वीर उभरती है - सेपिया टोन में रंगी एक तस्वीर - एक साधारण पर आकर्षक चेहरा, नाक में एक छोटी लौंग, माथे पर एक मध्यम आकार की बिंदी और कानों में झुमके।

पर इस चेहरे में सबसे आकर्षक चीज़ है - होठों पर एक अधखिली मुस्कान।

वो मुस्कान - जो गीता दत्त नामक व्यक्तित्व का जीवन समावेश है।


करीब २ साल पहले, रात को लेटे हुए AIR FM Gold सुन रही थी। उन्ही दिनों मेरी दिलचस्पी पुराने गीतों और फिल्मों की तरफ बढ़नी शुरू हुई थी. रेडियो सुनते सुनते पता नहीं क्या सोच रही थी कि एक गीत बजने लगा - "तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले..."

और उस एक पल ने मेरा सारा ध्यान उस आवाज़ कि ओर ला खड़ा किया - एक अनजानी आवाज़।

अभी तक पुराने दौर कि गायिकाओं के रूप में सिर्फ आशा - लता की आवाज़ से परिचित थी।पर यह नयी आवाज़ किसकी है? वह गीत ख़त्म हो गया पर वह आवाज़ मन में बैठ गयी।


Google पर ढूँढने पर उस गीत के बारे में जानकारी मिली:

फिल्म - बाज़ी

संगीत - सचिन देव बर्मन
गायिका - गीता दत्त

और अगले ही पल Google Image पर यह नाम टाइप करके enter दबा दिया।

कौन है इस अनुपम, अद्वितीय आवाज़ कि मालिक -गीता दत्त?

और सबसे पहली तस्वीर वही - सेपिया टोन में रंगी हुई - अधखिली मुस्कान के साथ - गीता दत्त।

तब से अब तक, मेरे लिए गीताजी कि पहचान बन गयी है वह तस्वीर और वह गीत - "तदबीर से..."


1950 की बात है - रिकॉर्डिंग स्टूडियो में इसी गीत की रिकॉर्डिंग चल रही थी। फिल्म के निर्देशक भी वहां उपस्थित थे - गुरु दत्त। गीत की रिकॉर्डिंग तो ख़त्म हो गयी, पर वह आवाज़ गुरु दत्त के मन में बैठ गयी।


आज पचास और साठ का दशक हिंदी सिनेमा का 'स्वर्णिम युग' कहलाता है और जो नाम उस युग की पहचान के रूप में सामने आते हैं, उनमें से मेरा प्रिय एक नाम है - गुरु दत्त!

आज भी हिंदी सिनेमा में गुरु दत्त का स्वर्णिम स्थान है। उनकी 'प्यासा', 'कागज़ के फूल' और 'साहिब बीबी और गुलाम' कालजयी कृतियाँ घोषित हो चुकी हैं।

पर गीता दत्त?

इन कालजयी कृतियों में महत्त्वपूर्ण योगदान के बाद भी, यह नाम समय की लहरों में डूब-सा गया है.

यह दीगर की बात है कि 1950 से पहले नज़ारा इससे ठीक उल्टा था। गीता दत्त - हिंदी और बंगला संगीत में यह नाम स्थापित हो चुका था। और गुरु दत्त - गुमनामी से निकल अपनी पहचान तलाशता एक नाम।


और दिलचस्प बात यह है कि मैं इनमें से जब भी कोई एक नाम सोचती हूँ, तो दूसरा नाम स्वतः ही जेहन में दौड़ा चला आता है।' गुरु - गीता' - मेरे लिए ये एक ही नाम हैं - एक दुसरे के पूरक।


बहरहाल, आज भी जब कभी हम रेडियो पर यदा कदा "ऐ दिल मुझे बता दे...", "मेरा नाम चिन चिन चू...", "बाबूजी धीरे चलना..." या "ठंडी हवा काली घटा..." सुनते हैं, तो पैर अपने आप ही थिरक उठते हैं और हम खुद को गुनगुनाने से रोक नहीं पाते।पर वह आवाज़ हम में से कितने लोग जानते हैं - पहचानते हैं?


और ये तो सिर्फ कुछ चुनिन्दा गीत हैं जो रेडियो पर सुनाई दे जाते हैं. गीता दत्त के गीतों का संसार इनसे कई गुना बड़ा है. फिर भी वह संसार आज गुमनामी की ओर अग्रसर है.
जहाँ आज भी आशा - लता जी के कई पुराने गीत रेडियो, टी।वी., यहाँ तक कि reality shows में भी गाये जाते हैं - वहां से गीताजी का नाम क्यों नदारद है?

जबकि लता और गीता - ये दो ही नाम ऐसे थे जिन्होंने 1950-60 के ज्यादातर गीतों को अपनी आवाज़ दी है। आशा जी को तो इन दो महारथियों के बीच अपनी जगह बनाने में काफी वक़्त लग गया था। और अगर इस गुमनामी कि वजह - गीताजी को गुज़रे सालों हो गए हैं - है, तो फिर क्यों आज भी रफ़ी साहब और किशोरदा संगीत प्रेमियों के मन में जीवित हैं?


आज भी जब कहीं पुराने गीतों की महफिल सजती है, तो मैं तत्परता से गीताजी का नाम ढूंढती हूँ। किसी अखबार में पुराने दौर के संगीत के ऊपर लेख पढ़ती हूँ, तो उसमें गीताजी को खोजती हूँ।orkut या facebook पर पुराने गीतों की communities में गीता दत्त का ज़िक्र तलाशती हूँ। पर 100 में से 99 बार निराशा ही हाथ लगती है।


मुझे यह सोचकर सच में बेहद दुःख होता है की लता, आशा, रफ़ी, किशोर, मुकेश और मन्ना डे की पंक्ति से गीता दत्त जी का नाम क्यों लापता हो गया? कैसे लापता हो गया?

मुझे इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढे से भी नहीं मिल पा रहा है।


जब कभी 'बादबान' का "कैसे कोई जीए ज़हर है ज़िन्दगी..." सुनती हूँ तो मन भर आता है।

'अनुभव' का "मुझे जान न कहो.." मेरी पलकें भिगा जाता है।

'साहिब बीबी और गुलाम' का "कोई दूर से आवाज़ दे.." सुनकर रूह काँप उठती है।

'कागज़ के फूल' का "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम..." सुनकर गला रुंध जाया है।

और 'दो भाई' का "खो के हमको पा न सकोगे, होंगे जहाँ हम आ न सकोगे, तढ़पोगे, फरियाद करोग, एक दिन हमको याद करोगे..." मन में एक टीस जगा जाता है...

कि सच में हमने गीताजी को खो दिया है। चाहकर भी उन्हें वापस नहीं ला सकते। केवल उनकी आवाज़ के माध्यम से उन्हें याद कर सकते हैं।

और लोगों से फरियाद कर सकते हैं कि कुछ तो करके गीताजी कि याद बनाये रखें।


यह एह प्रशंसक का नम्र निवेदन है.

Monday, February 9, 2009

सपने...

"सपनों से भरे नैना, न नींद है न चैना..."

बार बार यही गाना गुनगुना रहा था मन।
खिड़की से बाहर नज़र गई, देखा की छत पर चार कबूतर बैठे हैं - एक कतार में। कुछ नई बात नही थी।
वहां से नज़र घूमती हुई दीवार पर बनी अलमारी पर गई। उस पर सफ़ेद पेंट का उल्टा प्रश्नचिंह सा बना हुआ था। फिर वही - "सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."
उस प्रश्नचिंह में ख़ुद को प्रसिद्दि के मंच पर खड़े मुस्कुराते देखती हूँ। सपनों से भरे नैना तो हैं, पर साथ में नींद और चैन भी है। फिलहाल तो है ही। आगे का पता नही।
नज़र फिर खिड़की से बाहर छत पर। चार की जगह छः कबूतर - एक कतार में।

"आ चलके तुझे मैं ले के चलूँ, इक ऐसे गगन के तले जहाँ ग़म भी न हों आंसू भी न हों, बस प्यार ही प्यार पले..."
मन दूसरा गीत गाने लगा... मुझे भी ऐसे गगन के तले जाना है। क्या वे कबूतर उसी गगन से आए हैं? उन्हें भी तो कोई ग़म नहीं है। न कोई आंसू।
पर ये कबूतर भी कितने आकांकशाहीन होते हैं।
भेड़चालमें मस्त। जहाँ दो कबूतर बैठे दिखे, बाकी के आठ - दस भी बारी बारी वहीँ जमघट लगा लेते हैं।
क्यों?
इन्हे क्या ख़ुद पर भरोसा नहीं है?
क्या ये अकेले उड़ान भरने से डरते हैं?

PVR Priya के सामने एक फव्वारा है। पूरे साल सूखा-खाली पड़ा रहता है। पर फव्वारा है।
कई बार देखा है वहां। सैंकडों कबूतर एक साथ उड़ते हैं - जहाँ भी जाते हैं - साथ जाते हैं।
पर चील तो अकेले ही उड़ती हैं न!
वहां, उस वक्त साथ उड़ते कबूतरों को देख कर पता नहीं क्यों, खुशनुमा सा महसूस होता है मन में।
पर अभी छत पर बैठे कबूतरों को देख कर तो कोफ्त की होती है।
नालायक कहीं के!
वो क्यों नहीं अकेले उड़ान भर सकते?
क्यों हमेशा झुंड में रहते हैं, गुमनाम बने हुए?

to be continued...
continued...

जहाँ देखो - छतों पर, पानी की टंकियों पर, फ्लाई ओवर की मुंडेर पर, फूटपाथ पर फैले बाजरे के सामने - हर जगह झुंड में।
उनका मन क्यों नहीं करता की कोई उन्हें देख कर कहे, "अरे! यह तो वही कबूतर है न जो अपने झुंड के साथ नहीं, अपनी उड़ान अकेले भरता है, चील की तरह!"
उनका मन प्रसिद्दि के मंच पर खड़े हो कर मुस्कुराने को क्यों नहीं करता?

अब छत पर न जाने कितने कबूतर आ बैठे हैं - अँधेरा हो गया है न, शायद अकेले डर लगता है उन्हें!

"आ चल के तुझे..." - किशोर कुमार भी तो प्रसिद्ध हैं - उन्हें उसी मंच पर खड़े मुस्कुराते देख रही हूँ।
पर मुझे वो गगन नहीं चाहिए, जहाँ ग़म भी न हो आंसू भी न हो..."
मेरे लिए तो बस -

"सपनों से भरे नैना... न नींद है न चैना..."