शून्य
मैं शून्य में ताकती हूँ।
आपने कभी ऐसा किया है?
ज़रूर किया होगा।
शून्य तो हर किसी का हिस्सा है।
हर बात का किस्सा है।
बैठे बैठे, कुछ सोचते हुए न जाने कब,
हम सोच की चारदीवारी से निकल के
शून्य के आग़ोश में पहुँच जाते हैं।
जहां कोई हमारे पीछे नहीं आ सकता,
कोई ख़याल सांकल नहीं खोल सकता,
कोई आवाज़ कानों तक नहीं पहुँच सकती।
जहां मन अधीर नहीं होता,
जहां चिंताओं का नीड़ नहीं होता।
जहां भावनाएं मायने नहीं रखती,
जहां भाव पहरेदारी में नहीं है।
शून्य - दूर तक पसरा हुआ मौन।
ऐसा अन्धकार जो भयावह नहीं है।
मन को सुकून देनेवाला तमस।
हर परिचित संज्ञा से दूर ले जाने वाला पथ।
महसूस किया है न?
कभी न कभी?
शायद आप उसे ध्यान कहते हैं।
पर,
मैं शून्य कहती हूँ।
मैं शून्य में ताकती हूँ।
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2 comments:
Nice one ... Nice blog
BTW ... Like the name of the blog too!
thanks so much.. sorry for the late reply. I am not a regular here..
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